Monday, October 4, 2010

हो गया रंगारंग कार्यक्रम

रंगारंग कार्यक्रम शुरु हो गये हैं.. सारे नेता आज भव्य समारोह देख कर खुश हो गये, कार्यक्रम खत्म होने के बाद अपनी एसी लगी गाडियों मे बैठ कर अपने घर को चले जायेंगे, कुछ और लोग १००० रुपये या इस से ज्यादा की टिकट ले कर रंगारंग कार्यक्रम देखने आये होंगे, वो भी समारोह मी भव्यता देख कर ए.आर.रहमान का गाना गाते घर को चल देंगे. खिलाडी भी अपने अपने टावरो मे सोने चले जायेंगे.. इन सब से दूर एक आम आदमी अपने छोटे किराये के घर मे बैठा या फिर किसी छोटे से कमरे मे बैठा सोच रहा होगा कि अगले १२ दिन तक क्या होगा? आफिस जाने के लिये क्या योजना बनाई जाये कि बॉस की डॉट ना पडे, या देर से पहुंचने के कारण पगार ना कट जाये, उसका ध्यान अपने जीवन के खेल से नही हट पायेगा. १२ दिन बाद वो फिर से अपने दैनिक जीवन की उसी पुरानी व्यथा मे वापस लौट जायेगा जब उसे फिर से ब्लू लाइन की बस मिलनी शुरु हो जायेगी, जब उसे सडक पार करने के लिये कोई पुलिस वाला गरियायेगा नही, जब उसका प्रति दिन का आने जाने का बस का किराया फिर से १० या २० रुपये तक हो जायेगा.. उसे खेल खत्म होने से राहत मिलेगी.. और उधर एक दूसरा वर्ग  अंग्रेजी मे भारत की शान का गुणगान करता नजर आयेगा.. और उस भव्यता मे ही खो जायेगा जो उसे ३ अक्टूबर की शाम को देखने को मिली.

उसे आलू टमाटर के महंगा हो जाने से फर्क नही पडता. उसे बस ना मिलने से भी कोई चिंता नही सताती है, उसके घर का सामान मॉल से आता है.. जहां पहला वाला वर्ग घुसते हुए भी डरता है.
खेलो ने आम आदमी के जीवन मे बहुत बडा हस्तक्षेप किया है, उसके नियमित से जीवन मे बहुत सारे परिवर्तन हो गये हैं, और उसके बाद भी उसके लिये किसी के मन मे कोई संवेदना नही है. लोगो ने उसे दबा कर और उस से वसूल कर इकट्ठा किये पैसो का गुब्बारा उडाया है, कहीं पर पेड पौधे लगा दिये हैं और कहीं पर कांडोम मशीन लगा दी गयी है. आम आदमी अर्थ शास्त्र नही जानता. जब उसकी गली का दुकानदार उसे महंगा सामान देता है और पूछने पर कह्ता है कि पीछे से ही माल महंगा आ रहा है तो वो समझ नही पाता कि आखिर कहां पर आ कर सामान महंगा हो जात है. वो मुद्रा स्फीति , ग्रोथ रेट जैसे शब्द नही समझता. उसे समझने के लिये उसने एक अर्थ शास्त्री को चुन रखा है जिसे प्रधान मंत्री बनाया गया है. लेकिन उसने भी महंगाई से ज्यादा खेलो को पूरा करने के लिये हस्तक्षेप किया.
और जब आम आदमी ने  महंगाई की वजह से बंद किया था तो उसे बहुत सारा डाटा दिखा दिया गया कि उसकी  वजह से देश का कितना नुकसान हुआ, बालको की पढाई पर फर्क पडा, आफिस जाने वाले समय पर आफिस नही पहुंच सके, स्कूलो मे बच्चे नही पहुंच सके, सडक पर हम लोगो ने दंगा किया, पब्लिक प्रोपर्टी का नुकसान किया, जिसने उसका  साथ दिया उसका मजाक उडाया कि वो धूप मे गिर पडा था.. आज उस बात को कुछ महिने बीत गये हैं, जो सब कुछ करने का आरोप उसके ऊपर लगाया गया  पिछले कुछ दिनो मे वो सब सरकारी तंत्र ने किया और निर्लज्जता की सीमा तोड कर किया, और अभी अगले १३ दिन तक और करेगा. आज फिर से सडके बंद हैं फिर से स्कूल बंद हैं, फिर से लोगो को आने जाने के लिये बसे नही मिल रही हैं, फिर से बालको की पढाई का नुकसान हो रहा है, फिर से सरकारी आदमी सडक पर दंगा कर रहे हैं और २००० रुपये वसूल रहे हैं, लोगो को घरो से निकाल कर भगा दिया है लेकिन ये सब करने के बाद भी देश भक्ति का लेमनचूस भी आम आदमी को ही  दिया जा रहा है कि इसे मुंह मे डाल कर चुप चाप इस सरकारी भ्रष्टता को देखो और मुस्कुराओ..
जो प्रबंध कुशलता खेलो के आयोजन मे दिखाई जानी चाहिये थी वो अब विरोध के स्वर को दबाने के लिये दिखाई जा रही है. पहले खेलो के आयोजन का समर्थन पाने के लिये उसे देश भक्ति से जोड दिया गया, और समर्थन ना करने वालो को देश द्रोही जैसे शब्द भी सुना दिये गये. जब उस से काम नही चला तो फिर बेटी की शादी जैसा भावुक शब्द जोड कर समर्थन की आस पाने का प्रयास किया..
मीडिया को भी चकाचौंध से आकर्षित कर लिया गया है, सारे अखबारो ने  सरकारी भौंपू बन कर अपना तानपुरा बजाना शुरु कर दिया है. और पूरा विश्वास है कि अगले १३ दिन तक वो अपने सुरो मे कोई बदलाव नही करेगा.. और ये सभी सडको पर, टीवी पर, समाचारो पर, अखबारो मे हर जगह शोर मचा मचा कर कहेंगे कि भारत ने बहुत बडा काम कर दिया, एक खेल का आयोजन कर लिया. लेकिन झोपडी मे बैठे उस गरीब और मध्यम वर्ग की आवाज उस शोर मे दब कर कहीं दम तोड देगी, उसकी आवाज के साथ उसकी आशायें भी दम तोड देंगी कि कोई उसके साथ है, उसे यही लगता है कि वो अकेला है और दुनिया उस जैसे लोगो कि नही सुनती वो सिर्फ उस से वसूलती है और फिर उसे वसूल कर बडे बडे फंक्शन कराती है जिसको देखने के लिये टिकट लेना उसके बूते से बाहर की बात है. उसे सिर्फ देना है, और सहना है.. इसके अतिरिक्त उसका कोई अधिकार अब नही बचा है..

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